कवि चन्द वरदाई कृत जवलामुखी री स्तुति

चिंता विघन विनाशनी, कमलासनी शकत्त।

वीसहथी हॅस वाहनी, माता देहु सुमत्त॥1

 









                        छन्द भुजंगप्रयातम्

 

नमो आदि अन्नादि तूंही भवानी।

तुंही जोगमाया तूंही बाक बानी।

तुंही धर्नि आकाश विभो पसारे।

तुंही मोह माया बिखे शूल धारे॥1

 

तुंही चार वेदं खटं भाष चिन्ही।

तुंही ज्ञान विज्ञान मै सर्व भीनी।

तुंही वेद विद्या चऊदे प्रकाशी।

कला मंड चोवीस की रूप राशि॥2

 

तुंही रागनी राग वेदं पुराणम।

तुंही जन्त्र मे मन्त्र में सर्व जाणम।

तुंही चन्द्र मे सूर्य मे एक भासै।

तुंही तेज में पुंज मै श्री प्रकाशै॥3

 

तुंही सोखनी पोखनी तीन लोकं।

तुंही जागनी सोवनी दूर दोखं।

तुंही धर्मनी कर्मनी जोगमाया।

तुंही खेचरी भूचरी वज्रकाया ॥ 4

 

तुंही रिद्धि की सिद्धि की एक दाता।

तुंही जोगिनी भोगिनी हो विधाता।

तुंही चार खानी तुंही चार वाणी।

तुंही आतमा पंच भूतं प्रमाणी॥5

 

तुंही सात द्वीपं नवे खंड मंडी।

तुंही घाट ओघाट ब्रह्मंड डंडी।

तुंही धर्नि आकाष तूं बेद बानी।

तुंही नित्य नौजोवना हो भवानी॥6

 

तुंही उद्र में लोक तीनूं उपावे।

तुंही छन्न में खान पानं खपावे।

तुंही एक अन्नेक माया उपावे।

तुंही ब्रह्म भुतेष विष्णु कहावे॥7

 

तुंही मात हो एक ज्योती स्वरूपं।

तुंही काल महाकाल माया विरूपं।

तुंही हो ररंकार ओंकार बाणी।

तुंही स्थावरं जंगमं पोख प्राणी॥8

 

तुंही तूं तुंही तुं तुंही एक चण्डी।

हरी शंकरी ब्रह्म भासे अखण्डी।

तुंही कच्छ रूपं उदद्धी बिलोही।

तुंही मोहिनी देव दैतां विमोही॥9

 

तुंही देह वाराह देवी उपाई।

तुंही ले धरा थंभ दाढां उठाई।

तुंही विप्रहू में सुरापान टार्यो।

तुंही काल बाजी रची दैत मार्य॥10

 

तुंही भारजा इंद्र को मान मार्यो।

तुंही जाय के भ्रग्गु को गर्व गार्यो।

तुंही काम कल्ला विखे प्रेम भीनी।

तुंही देव-दैतां दमी जीत दीनी ॥11

 

तुंही जागती जोति निंद्रा न लेवे।

तुंही जीत देनी सदा देव सेवे।

अजोनी न जोनी उसासी न सासी।

न बैठी न ऊभी न पोढ़ी प्रकासी॥12

 

न जागे न सोवे न हाले न डोले।

गुपत्ती न छत्ति करंति किलोले।

भुजाळं विशालं उजाळं भवानी।

कृपालं त्रिकालं करालं दिवानी॥13

 

उदानं अपानं अछेही न छेही।

न माता न ताता न भ्राता सनेही।

विदेही न देही न रूपा न रेखी।

न माया न काया न छाया विषेखी॥14

 

उदासी न आसी निवासी न मंडी।

सरूपा विरूपा न रूपा सुचंडी।

कमंखा न संखा असंखा कहानी।

हरींकार शब्दं निरंकार बानी ॥15

 

नवोढा न प्रौढा न मुग्धा न बाली।

करोधा विरोधा निरोधा कृपाली।

अभंगा न अंगा त्रिभंगा न जानी।

अनंगा न अंगा सुरंगा पिछानी ॥16

 

शिखर पै फुहारो असो रूप तोरो।

अजोनी सुपावों कटे फंद मोरो।

पढ़े चंद छन्दं अभै दान पाऊं।

निशा वासरं मात दुर्गे सुध्याऊं॥17

 

सुनी साधुकी टेर धाओ भवानी।

गजं डूबते ही ब्रजंराज जानी।

भजे खेचरी भूचरी भूत प्रेतं।

भजे डाकिनी शाकिनी छोड़ खेतं।॥18

 

पढे जीत देनी सबै दैत नाशं।

भजे किंकरी शंकरी काल पाशं।

भजे तोतला जंत्र मंत्रं बिरोळे।,

भजे नारसिंगी बली बीर डोले॥19

 

निशा वासरं शक्ति को ध्यान धारे।

सु नैनं करी नित्य दोषं निवारे।

करी वीनती प्रेमसो भाट चंदं।

पढ़ंते सुनंते मिटे काल फंदं ॥20

 

तुंही आदि अन्नादि की एक माया।

सबे पिण्ड ब्रह्मांड तुंही उपाया।

तुंही बीर बावन्न वंदे सुभारी।

तुंही वाहनी हंस देवी हमारी॥21

 

तुंही पंच तत्वं धरी देह तारी।

तुंही गेह गेहं भई शील वारी।

तुंही शैलजा श्री सावित्री सरूपी।

तुंही शिव विष्णू अजं थीर थप्पी ॥22

 

तुंही पान कुंभं मधुपान करनी।

तुंही दुष्ट घातीन के प्रान हरनी।

तुंही जीव तूं शिव तूं रीत भर्नी।

तुंही अंतरीखं तुंही चीर धर्नी॥23

 

तुंही वेद में जीव रूपं कहावे।

निराधर आधार संसार गावे।

तुंही त्रिगुणी तेज माया लुभाणी।

तुंही पंच भूतं नमस्ते भवानी ॥24

 

नमोॐकार रूपे कल्यानी कमल्ला।

कलारूपं तूं कामदा तूं विमल्ला।

कुमारी करूणा कमंख्या कराली।

जया विज्जया भद्रकाली किंकाली॥25

 

शिवा शंकरी विश्व विमोहनीयं।

वराही चामुण्डा द्रुगा जोगनीयं।

महालच्छमी मंगला रत्त अख्खी।

महा तेज अंबार जालंद्र मख्खी ॥26

 

तुंही गंग गोदावरी गोमतीयं।

तुंही नर्मदा जम्मना सर्सतीयं।

तुंही कोटि सूरज्ज तेजं प्रकाशी।

तुंही कोटि चंदाननं जोत भासी॥27

 

तुंही कोटिधा विश्व आकाश धारे।

तुंही कोटि सुमेरू छाया अपारे।

तुंही कोटि दावानलं ज्वालमाला।

॥तुंही कोटि भयभीत रूपं कराला ॥28

 

तुंही कोटि श्रृंगार लावण्यकारी।

तुंही राधिका रूप रीझे मुरारी।

तुंही विश्व कर्ता तुंही विश्व हर्ता।

तुंही स्थावंर जंगमं में प्रवर्ता ॥29

 

द्रुगामां दुरीजन्न वंदे न आयं।

जपे जाप जालंदरी तो सहायं।

नमस्ते नमस्ते सु जालेन्द्र रानी।

सुरं आसुरं नाग पूजंत प्रानी ॥30

 

नमोंकार रूपे सु आपे बिराजे।

क्लींकार ह्रींकार ॐकार छाजे।

ओहंकार देवी सोहंकार भासं।

श्रियंकार हूंकार त्रींकार वासं॥31

 

तुंही पातकां नाशनी नारसींगी।

तुंही जोगमाया अनेका सुरंगी।

तुंही तूं ज जाने सु तोरो चरीतं।

कहां में लखों चंद तोरी सुक्रीतं ॥32

 

अपारं अनंतं जुगं रूप जानी।

नमस्ते नमस्ते नमस्ते भवानी।

नमो ज्वाला ज्वालामुखी तोहि ध्यावे।

अभय सिघ्र वरदान को चंद पावे॥33

 

कहांलो बखानूं लघू बुद्धी मेरी।

पतंगी कहा सूर साम्हे उजेरी।

रति है तुम्हारी मति है तुम्हारी।

चिति है तुम्हारी गति है तुम्हारी॥34

जुगं हाथ जोरी कहे चंद छंदं।

हरो भक्त के दुःख आनंदकंदं।

हिये में बिरजो करो आप बानी।

नमस्ते नमस्ते नमस्ते भवानी॥35

 

दोहा:

 

करि विनती यूं बंदिजन, सनमुख रहो सुजान।

प्रकट अम्बिका यूं कहयो, मांग चंद वरदान ॥1

 

छप्पय:

 

जयति जयति जग मात,जयति कारण सब करणी।

जयति भरण भंडार,जयति तारण भवतरणी।

जयति बुध्धि गुरुदेव,दत्त वायक वरदाई।

जयति आद अन्नादि,पींड ब्रहमांड उपाई।

अवलोक लोक साधत अखिल,करणी असुर वध कालिका।

रहो मोहि सहाय सब ठौर पर,जय जग चंडी ज्वालिका॥1

 

आदि अगम अवतार,दैत महिषासुर दरनी।

आदि अगम अवतार,कैटभ मधु भच्छण करणी।

आदि अगम अवतार, रगत शिर रहै रग्गदर।

आदि अगम अवतार, खळण दळ दळ्या खग्गधर।

सुर नर असुर साधंत नित,करणि दुष्ट वध कालिका।

रहो मो सहाय रणखेत मह,जय जग चंडी ज्वालिका॥2

 

शेषनाग साधंत,जपै उर आठौ जामहि।

अरक चंद्र उडुमाळ,नित्त सुमिरै गुण ग्रामहि।

ब्रह्मा विष्णु महेश, सिध्ध चारण सुरराई।

अहरनिशा सुर असुर,आपरी करत वडाई॥

ब्रह्मांड अखिल व्यापक शकति,करणि हरणि प्रतिपालिका।

कर जौरि चंद कवि उच्चरै, जय जग चंडी ज्वालिका॥3

दोहा:

 

कवि चंद रण खेत मै जबहि लरन को जाय।

तब आराधै शक्ति को, मंडै तत्व उपाय॥1

नागणी छंदः

 

रिध्धि दे, सिध्धि दे, अष्ट नव निध्धि दे, वंश मै वृद्धि दे ,बाकबानी।

ह्रदयमें ज्ञान दे, चित्तमें ध्यान दे, अभय वरदान दे, शंभुरानी।

दुःख को दुर कर,सुख भरपुर कर,आश संपुर कर दास जानी।

सज्जन सों हित दे,कुटुम्ब सो प्रीत दे,जंग मै जीत दे मां भवानी ।।

 

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