छंद घघ्घर नीसाणी/ कवि सालू जी कविया बिराई

कवि सालू जी कविया बिराई कृत

आवड़ सरणो आपरो,रीझे तूँ सुरराय।
ऊणत मेटै ईशरी मो जननी महमाय

छंद घघ्घर नीसाणी

आवड़ मढ अच्छं विमल विरच्छं मंजर महकंदा है
तरवर सब सज्जमं फरहर धज्जं दीपक जोति दिपन्दा है
प्रतिमा ग्रह पुरं चढत सिंदूरं सिर चन्दन सोहन्दा है
आभूषण अंगे सरब सुचंगे पाटम्बर ओपन्दा है।।
कुण्डल़ करणालं रूप रसालं जगमग जोत जगन्दा है
हिण्डल गल हारं मुक्ता सारं कण माणक भलकन्दा है
कंचन चूडालं बीस भुजालं खडग त्रिशूल खिवन्दा है
खप्पर भर खाणं पल़ रक्ताणं जोगन दल़ जीमन्दा है।।
खेतल मढ खेला संग सचेला प्याला मद पीवन्दा है
आयल अख्खाड़ा प्रगट प्रवाड़ा नर सुर नाग नमन्दा है
विध कर नर वन्दे चँवर करन्दे सेवा सुर साजन्दा है
घन्टा घड़ियालं त्रहक त्रमालं झालर सुर झरणन्दा है।।
नोबत नीसाणं सबद सुहाणं घरहर घैर घुरन्दा है
पैताल़ उपंगे दुकड़ मृदंगे बीण सितार बजन्दा है
सहनाय सुप्यारं तबल तयारं बंसी सुर बाजन्दा है
करताल कहक्के डाक डहक्के राग छत्तीस रचन्दा है।।
पाबू पकवानं जगत जहानं भोजन थाल़ भरन्दा है
सीरा दध साकर भैसा बाकर  चाचर पूज चढन्दा है
लीधा नवलख्खे शबद सुपख्खे सिंहासन सोहन्दा है
देवी दरबारं साँझ सुआरं कवि अस्तूत करन्दा है।।
मामड़ सुत माई सिद्ध सवाई दिन प्रति मोद गहन्दा है
घघ्घर नीसाणी विरद बखाणी इम सालम आखन्दा है।।
कवि सालू जी कविया बिराई कृत

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